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Ghaus Khah makhah Hyderabadi's Photo'

ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी

1929 - 2017 | हैदराबाद, भारत

ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी के शेर

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छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को

तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है

परेशानी से सर के बाल तक सब झड़ गए लेकिन

पुरानी जेब में कंघी जो पहले थी सो अब भी है

ज़माने का चलन क्या पूछते हो 'ख़्वाह-मख़ाह' मुझ से

वही रफ़्तार बे-ढंगी जो पहले थी सो अब भी है

उड़ा कर देख ले कोई पतंगें अपनी शेख़ी की

बुलंदी पर अगर हों भी तो कन्ने काट सकता हूँ

सियासत-दाँ जो तब्ई मौत मरते

तो साज़िश की ज़रूरत ही होती

किसी की नज़र 'ख़्वाह-मख़ाह' लग जाए

बुढ़ापे में लगते हो तुम नौजवाँ से

जेब ग़ाएब है तो नेफ़ा है बटन के बदले

तुम ने पतलून का पाजामा बना रखा है

गुनाहगारों और आसियों को अज़ाब-ए-दोज़ख़ से वाइ'ज़ो तुम

डराओ बे-शक मगर इतना कि दिल दहल जाए आदमी का

जनता पे राज करती है डाकुओं की टोली

वो बच गए जुनूँ से खेली थी ख़ूँ की होली

समझ ले नाम तेरा ही लिखा है दाने दाने पर

कभी मत सोच मेदे के लिए अच्छा बुरा क्या है

अगर आता हमें हक़ छीन लेना

गुज़ारिश की ज़रूरत ही होती

पहले पहले शौहर को हर मौसम भीगा लगता है

यूँ समझो बिल्ली के भागों टूटा छीका लगता है

झगड़ कर जब कहा बेगम ने हम से घर से जाने को

बहुत बे-आबरू हो कर ख़ुद अपने घर से हम निकले

टँगी है जो मिरे हैंगर-नुमा कंधों पे मैली सी

मिरी शादी की है ये शेरवानी देखते जाओ

किसी की ढल गई कैसी जवानी देखते जाओ

जो थीं बेगम वो हैं बच्चों की नानी देखते जाओ

हम शाइ'रों को देखो रहने को घर नहीं है

लिखते हैं शाइ'री में सारा जहाँ हमारा

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