हैरत इलाहाबादी के शेर
न तो कुछ फ़िक्र में हासिल है न तदबीर में है
वही होता है जो इंसान की तक़दीर में है
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कहा आशिक़ से वाक़िफ़ हो तो फ़रमाया नहीं वाक़िफ़
मगर हाँ इस तरफ़ से एक ना-महरम निकलता है
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आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं
सामान सौ बरस का है पल की ख़बर नहीं
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अपना ही हाल तक न खुला मुझ को ता-ब-मर्ग
मैं कौन हूँ कहाँ से चला था कहाँ गया
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टैग : राज़
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