हसन अज़ीज़
ग़ज़ल 7
अशआर 4
इक क़िस्सा-ए-तवील है अफ़्साना दश्त का
आख़िर कहीं तो ख़त्म हो वीराना दश्त का
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मैं टूटने देता नहीं रंगों का तसलसुल
ज़ख़्मों को हरा करता हूँ भर जाने के डर से
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देखूँ वो करती है अब के अलम-आराई कि मैं
हारता कौन है इस जंग में तन्हाई कि मैं
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भटक रहा हूँ मैं इस दश्त-ए-संग में कब से
अभी तलक तो दर-ए-आईना खुला न मिला
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