हया लखनवी
ग़ज़ल 4
अशआर 4
निगाह-ए-शौक़ अगर दिल की तर्जुमाँ हो जाए
तो ज़र्रा ज़र्रा मोहब्बत का राज़-दाँ हो जाए
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आह ये बरसात का मौसम ये ज़ख़्मों की बहार
हो गया है ख़ून-ए-दिल आँखों से जारी इन दिनों
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चमन वही है घटाएँ वही बहार वही
मगर गुलों में वो अब रंग-ओ-बू नहीं बाक़ी
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रहें ग़म की शरर-अंगेज़ियाँ या-रब क़यामत तक
'हया' ग़म से न मिलती गर कभी फ़ुर्सत तो अच्छा था
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