इब्न-ए-उम्मीद
ग़ज़ल 5
नज़्म 1
अशआर 4
मैं ख़ुशी में घिर के उदास हूँ
कोई और इस का सबब नहीं
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आँखों में ख़्वाब चुभन सोने नहीं देती है
एक मुद्दत से हमें तू ने जगा रक्खा है
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हम यूँही ख़्वाब बुनते रहते हैं
खेल सारा क़ज़ा का होता है
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ऐसे ख़ुद को अज़िय्यतें देना
तू ने 'फ़र्रुख़' कहाँ से सीखा है
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