इफ़्तिख़ार राग़िब
ग़ज़ल 36
अशआर 21
पढ़ता रहता हूँ आप का चेहरा
अच्छी लगती है ये किताब मुझे
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इंकार ही कर दीजिए इक़रार नहीं तो
उलझन ही में मर जाएगा बीमार नहीं तो
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दिन में आने लगे हैं ख़्वाब मुझे
उस ने भेजा है इक गुलाब मुझे
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चंद यादें हैं चंद सपने हैं
अपने हिस्से में और क्या है जी
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सख़्त-जानी की बदौलत अब भी हम हैं ताज़ा-दम
ख़ुश्क हो जाते हैं वर्ना पेड़ हिल जाने के बाद
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