इमाम आज़म
ग़ज़ल 12
नज़्म 1
अशआर 10
उन के रुख़्सत का वो लम्हा मुझे यूँ लगता है
वक़्त नाराज़ हुआ दिन भी ढला हो जैसे
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जो मज़े आज तिरे ग़म के अज़ाबों में मिले
ऐसी लज़्ज़त कहाँ साक़ी की शराबों में मिले
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दुनिया की इक रीत पुरानी, मिलना और बिछड़ना है
एक ज़माना बीत गया है तुम कब मिलने आओगे
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मौसम सूखा सूखा सा था लेकिन ये क्या बात हुई
केवल उस के कमरे में ही रात गए बरसात हुई
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हर तरफ़ इक जंग का माहौल है 'आज़म' यहाँ
आदमी अब घर के भी अंदर सलामत है कहाँ
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