इक़बाल सुहैल
ग़ज़ल 15
नज़्म 1
अशआर 8
न रहा कोई तार दामन में
अब नहीं हाजत-ए-रफ़ू मुझ को
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जो तसव्वुर से मावरा न हुआ
वो तो बंदा हुआ ख़ुदा न हुआ
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हुस्न-ए-फ़ितरत की आबरू मुझ से
आब ओ गिल में है रंग-ओ-बू मुझ से
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ख़ाकिस्तर-ए-दिल में तो न था एक शरर भी
बेकार उसे बर्बाद किया मौज-ए-सबा ने
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वो शबनम का सुकूँ हो या कि परवाने की बेताबी
अगर उड़ने की धुन होगी तो होंगे बाल-ओ-पर पैदा
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