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इशरत क़ादरी

1926

इशरत क़ादरी

ग़ज़ल 17

अशआर 7

इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगे

इक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे

वो तेरे बिछड़ने का समाँ याद जब आया

बीते हुए लम्हों को सिसकते हुए देखा

कौन देखेगा मुझ में अब चेहरा

आईना था बिखर गया हूँ मैं

ज़ाहिरी शक्ल मेरी ज़िंदा है

और अंदर से मर गया हूँ मैं

यूँ ज़िंदगी गुज़र रही है मेरी

जो उन की है वही ख़ुशी है मेरी

पुस्तकें 7

 

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