इशरत क़ादरी
ग़ज़ल 17
अशआर 7
इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगे
इक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
वो तेरे बिछड़ने का समाँ याद जब आया
बीते हुए लम्हों को सिसकते हुए देखा
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
कौन देखेगा मुझ में अब चेहरा
आईना था बिखर गया हूँ मैं
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
ज़ाहिरी शक्ल मेरी ज़िंदा है
और अंदर से मर गया हूँ मैं
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
यूँ ज़िंदगी गुज़र रही है मेरी
जो उन की है वही ख़ुशी है मेरी
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए