जमील मलिक
ग़ज़ल 31
नज़्म 1
अशआर 17
हम से कोई तअल्लुक़-ए-ख़ातिर तो है उसे
वो यार बा-वफ़ा न सही बेवफ़ा तो है
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हम तो तमाम उम्र तिरी ही अदा रहे
ये क्या हुआ कि फिर भी हमीं बेवफ़ा रहे
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कैसे थे लोग जिन की ज़बानों में नूर था
अब तो तमाम झूट है सच्चाइयों में भी
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दिल की क़ीमत तो मोहब्बत के सिवा कुछ भी न थी
जो मिले सूरत-ए-ज़ेबा के ख़रीदार मिले
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ख़त्म हो जाएँ जिन्हें देख के बीमारी-ए-दिल
ढूँड कर लाएँ कहाँ से वो मसीहा चेहरे
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