जमील मुरस्सापुरी
ग़ज़ल 4
अशआर 6
अगर ये ज़िद है कि मुझ से दुआ सलाम न हो
तो ऐसी राह से गुज़रो जो राह-ए-आम न हो
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सदियों से ज़माने का ये अंदाज़ रहा है
साया भी जुदा हो गया जब वक़्त पड़ा है
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घर अपना किसी और की नज़रों से न देखो
हर तरह से उजड़ा है मगर फिर भी सजा है
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ये दौर भी क्या दौर है इस दौर में यारो
सच बोलने वालों का ही अंजाम बुरा है
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