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जावेद अकरम फ़ारूक़ी

1960 | अमरोहा, भारत

जावेद अकरम फ़ारूक़ी

ग़ज़ल 21

अशआर 6

लम्हा लम्हा रोज़ सँवरने वाला तू

लम्हा लम्हा लम्हा रोज़ बिखरने वाला मैं

ख़ाक-ए-वतन अब तो वफ़ाओं का सिला दे

मैं टूटती साँसों की फ़सीलों पे खड़ा हूँ

मुस्कुराने की सज़ा मिलती रही

मुस्कुराने की ख़ता करते रहे

कितना मुश्किल हुआ जवाब मुझे

कितना आसान था सवाल उस का

मैं हाथों में ख़ंजर ले कर सोच रहा हूँ

लौटूँगा तो मेरा भी घर ज़ख़्मी होगा

पुस्तकें 5

 

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