जवाज़ जाफ़री
ग़ज़ल 3
नज़्म 9
अशआर 4
कभी दीवार को तरसे कभी दर को तरसे
हम हुए ख़ाना-ब-दोश ऐसे कि घर को तरसे
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ज़ेहन इस ख़ौफ़ से होने लगे बंजर कि यहाँ
अच्छी तख़्लीक़ पर कट जाते हैं मेमार के हाथ
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अदब का ज़ीना मिला ज़ीस्त का क़रीना मिला
कहाँ कहाँ न तिरे ग़म से इस्तिफ़ादा हुआ
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