जुनैद अख़्तर
ग़ज़ल 13
अशआर 8
रखते हैं मोहब्बत को तग़ाफ़ुल में छुपा कर
पर्वा ही तो करते हैं जो पर्वा नहीं करते
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वो तो बस झूटी तसल्ली को कहा था तुम से
हम तो अपने भी नहीं, ख़ाक तुम्हारे होते
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मैं भला हाथ दुआओं को उठाता कैसे
उस ने छोड़ी ही नहीं कोई ज़रूरत बाक़ी
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सारे तो नहीं जान बचाने में लगे हैं
कुछ घाव हमें ज़ख़्म लगाने में लगे हैं
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यक़ीं ख़ुद उठ गया है मुझ से मेरा
मिरी इतनी तरफ़-दारी हुई है
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