कबीर अजमल
ग़ज़ल 15
अशआर 16
'अजमल' सफ़र में साथ रहीं यूँ सऊबतें
जैसे कि हर सज़ा का सज़ा-वार मैं ही था
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उफ़ुक़ के आख़िरी मंज़र में जगमगाऊँ मैं
हिसार-ए-ज़ात से निकलूँ तो ख़ुद को पाऊँ मैं
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ये ग़म मिरा है तो फिर ग़ैर से इलाक़ा क्या
मुझे ही अपनी तमन्ना का बार ढोने दे
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लहू रिश्तों का अब जमने लगा है
कोई सैलाब मेरे घर भी आए
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वो मेरे ख़्वाब चुरा कर भी ख़ुश नहीं 'अजमल'
वो एक ख़्वाब लहू में जो फैल जाना था
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