कैफ़ी विजदानी
ग़ज़ल 8
अशआर 10
ये खुले खुले से गेसू इन्हें लाख तू सँवारे
मिरे हाथ से सँवरते तो कुछ और बात होती
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सिर्फ़ दरवाज़े तलक जा के ही लौट आया हूँ
ऐसा लगता है कि सदियों का सफ़र कर आया
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ख़ुद ही उछालूँ पत्थर ख़ुद ही सर पर ले लूँ
जब चाहूँ सूने मौसम से मंज़र ले लूँ
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बचा लिया तिरी ख़ुश्बू के फ़र्क़ ने वर्ना
मैं तेरे वहम में तुझ से लिपटने वाला था
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बस्ती में ग़रीबों की जहाँ आग लगी थी
सुनते हैं वहाँ एक नया शहर बसेगा
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