ख़ालिद इक़बाल यासिर
ग़ज़ल 18
अशआर 12
आबाद बस्तियाँ थीं फ़सीलों के साए में
आपस में बस्तियों को मिलाता हुआ हिसार
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पलट के आए न आए कोई सुने न सुने
सदा का काम फ़ज़ाओं में गूँजते तक है
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भूल जाना था जिसे सब्त है दिल पर मेरे
याद रखना था जिसे उस को भुला बैठा हूँ
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यही बहुत है किसी तरह से भरम ही रह जाए पेश दुनिया
अगर मयस्सर नहीं है बादा ख़याल-ए-बादा भी कम नहीं है
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लगता है ज़िंदा रहने की हसरत गई नहीं
मर के भी साँस लेने की आदत गई नहीं
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