हसनैन आक़िब
ग़ज़ल 33
नज़्म 2
अशआर 8
और थोड़ा सा बिखर जाऊँ यही ठानी है
ज़िंदगी मैं ने अभी हार कहाँ मानी है
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बहुत उदास हैं दीवारें ऊँचे महलों की
ये वो खंडर हैं कि जिन में अमीर रहते हैं
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ख़ुद को कभी मैं पा न सका
जाने कितना गहरा हूँ
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लफ़्ज़ों के हेर-फेर से बनती नहीं ग़ज़ल
शेरों में थोड़ी गर्मी-ए-जज़्बात भी तो हो
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जी चाहता है तर्क-ए-मोहब्बत को बार बार
आता है एक ऐसा भी लम्हा विसाल में
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