ख़ान रिज़वान
ग़ज़ल 24
नज़्म 1
अशआर 8
उम्र-ए-रफ़्ता जा किसी दीवार के साए में बैठ
बे-सबब की ख़्वाहिशें हैं और घर की जुस्तुजू
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तर्क-ए-तअल्लुक़ात में महजूर तो हुए
लेकिन ख़याल-ओ-ख़्वाब में वो रू-ब-रू रहे
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कौन गुज़रा है ये आँधियों की तरह
शम्अ-ए-राह-ए-वफ़ा को बुझाते हुए
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की है सरगोशी सर-ए-शाम मिरे दिल ने फिर
इस लिए हम ने लपेटा नहीं बिस्तर अपना
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हम तो अपने क़द के बराबर भी न हुए
लोग न जाने कैसे ख़ुदा हो जाते हैं
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