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ख़ान रिज़वान

1982 | दिल्ली, भारत

नई पीढ़ी के शायर

नई पीढ़ी के शायर

ख़ान रिज़वान

ग़ज़ल 24

नज़्म 1

 

अशआर 8

ये ख़द्द-ओ-ख़ाल ये गेसू ये सूरत-ए-ज़ेबा

सभी का हुस्न है अपनी जगह मगर आँखें

हम तो अपने क़द के बराबर भी हुए

लोग जाने कैसे ख़ुदा हो जाते हैं

उम्र-ए-रफ़्ता जा किसी दीवार के साए में बैठ

बे-सबब की ख़्वाहिशें हैं और घर की जुस्तुजू

कौन गुज़रा है ये आँधियों की तरह

शम्अ-ए-राह-ए-वफ़ा को बुझाते हुए

तर्क-ए-तअल्लुक़ात में महजूर तो हुए

लेकिन ख़याल-ओ-ख़्वाब में वो रू-ब-रू रहे

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शायर अपना कलाम पढ़ते हुए
असीर-ए-दर्द हो कर जी रहा हूँ

ख़ान रिज़वान

कभी मुझे कभी ख़ुद को भुला के देखता है

ख़ान रिज़वान

कोई दुआ है या फिर बद-दुआ है मेरे लिए

ख़ान रिज़वान

ज़िंदगी आई मुझ को रास अभी

ख़ान रिज़वान

ठहरना भूल गई हैं लहू से तर आँखें

ख़ान रिज़वान

नींद की सौदागरी करता हूँ मैं

ख़ान रिज़वान

हिसार-ए-ग़म से जो निकले भी तो किधर आए

ख़ान रिज़वान

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