ख़ाक़ान ख़ावर के शेर
ये रंग रंग परिंदे ही हम से अच्छे हैं
जो इक दरख़्त पे रहते हैं बेलियों की तरह
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तिरे सितम की ज़माना दुहाई देता है
कभी ये शोर तुझे भी सुनाई देता है
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वो सँवर सकता है माक़ूल भी हो सकता है
मेरा अंदाज़ा मिरी भूल भी हो सकता है
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यूँ हिरासाँ हैं मुसाफ़िर बस्तियों के दरमियाँ
हो गई हो शाम जैसे जंगलों के दरमियाँ
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मैं सुनाता रहा दुखड़े 'ख़ावर'
और रोती रही शब भर दीवार
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