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ख़्वाजा अमीनुद्दीन अमीन

1934

ख़्वाजा अमीनुद्दीन अमीन

ग़ज़ल 5

 

अशआर 3

सुब्ह गर सुब्ह-ए-क़यामत हो तो कुछ पर्वा नहीं

हिज्र की जब रात ऐसी बे-क़रारी में कटी

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मैं दर-गुज़रा साहिब-सलामत से भी

ख़ुदा के लिए इतना बरहम हो

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गालियाँ ग़ैर से सुनाते हो

हाँ मियाँ और तुम से क्या होगा

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