कृष्ण कुमार तूर
ग़ज़ल 35
अशआर 20
मैं तो था मौजूद किताब के लफ़्ज़ों में
वो ही शायद मुझ को पढ़ना भूल गया
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मैं वहम हूँ कि हक़ीक़त ये हाल देखने को
गिरफ़्त होता हूँ अपना विसाल देखने को
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सफ़र न हो तो ये लुत्फ़-ए-सफ़र है बे-मअ'नी
बदन न हो तो भला क्या क़बा में रक्खा है
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कब तक तू आसमाँ में छुप के बैठेगा
माँग रहा हूँ मैं कब से दुआ बाहर आ
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