महेंद्र कुमार सानी
ग़ज़ल 9
अशआर 17
मैं तन्हाई को अपना हम-सफ़र क्या मान बैठा
मुझे लगता है मेरे साथ दुनिया चल रही है
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रात दिन गर्दिश में हैं लेकिन पड़ा रहता हूँ मैं
काम क्या मेरा यहाँ है सोचता रहता हूँ मैं
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तुझे रौशनी से जुदा करूँ किसी शाम मैं
तुझे इतनी ताब में देखना नहीं हो रहा
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मैं चाहता हूँ कि तेरी तरफ़ न देखूँ मैं
मिरी नज़र को मगर तू ने बाँध रक्खा है
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दरख़्त-ए-ज़र्द में जैसे हरा सा रहता है
वो ठीक उसी तरह मुझी में भरा सा रहता है
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