मख़मूर सईदी
ग़ज़ल 36
नज़्म 8
अशआर 21
हो जाए जहाँ शाम वहीं उन का बसेरा
आवारा परिंदों के ठिकाने नहीं होते
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सुर्ख़ियाँ ख़ून में डूबी हैं सब अख़बारों की
आज के दिन कोई अख़बार न देखा जाए
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घर में रहा था कौन कि रुख़्सत करे हमें
चौखट को अलविदा'अ कहा और चल पड़े
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दोहा 6
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चित्र शायरी 5
नए नए लफ़्ज़ शोर करते बढ़े चले आ रहे हैं फ़िक्र ओ ख़याल की रहगुज़र आबाद हो रही है ज़बाँ बहुत सी पुरानी हद-बंदियों से आज़ाद हो रही है कई फ़साने जो अन-कहे थे कई तसव्वुर जो बे-ज़बाँ थे हज़ार आलम नशात ओ ग़म के जो पहले ना-क़ाबिल-ए-बयाँ थे वो धड़कनें ख़ामुशी ही जिन के ख़रोश-ए-पिन्हाँ की तर्जुमाँ थी वो नग़्मगी जो ख़मोशियों के सियाह ज़िंदाँ में पर-फ़िशाँ थी उसे अब आख़िर खुली फ़ज़ाओं में इज़्न-ए-परवाज़ मिल गया है कि इक नया रिश्ता दरमियान-ए-ख़याल-ओ-आवाज़ मिल गया है मगर मुझे चुप सी लग गई है नए नए लफ़्ज़ शोर करते बढ़े चले आ रहे हैं और मैं हुजूम-ए-पुर-शोर में अकेला पुराने लफ़्ज़ों को ढूँडता हूँ ये देखता हूँ जहाँ जहाँ कल पुराने लफ़्ज़ों ने डाल रक्खे थे अपने डेरे वहाँ नए लफ़्ज़ आ के आबाद हो गए हैं मकाँ अगरचे उजड़ न पाए मकीन बर्बाद हो गए हैं नए नए लफ़्ज़ शोर करते बढ़े चले आ रहे हैं लेकिन पुराने लफ़्ज़ों की पाएमाली ने दम ब-ख़ुद कर दिया है मुझ को किसी ने सोचा नहीं है शायद मगर मैं अक्सर ये सोचता हूँ पुराने लफ़्ज़ों के साथ ही इक पुरानी दुनिया भी खो गई है ख़ामोशियों के सियाह-ज़िंदाँ में जा के रू-पोश हो गई है