मंज़र सलीम के शेर
सूरज चढ़ा तो पिघली बहुत चोटियों की बर्फ़
आँधी चली तो उखड़े बहुत साया-दार लोग
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अब राह-ए-वफ़ा के पत्थर को हम फूल नहीं समझेंगे कभी
पहले ही क़दम पर ठेस लगी दिल टूट गया अच्छा ही हुआ
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दहशत खुली फ़ज़ा की क़यामत से कम न थी
गिरते हुए मकानों में आ बैठे यार लोग
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