मंज़ूर हाशमी
ग़ज़ल 21
अशआर 29
नई फ़ज़ा के परिंदे हैं कितने मतवाले
कि बाल-ओ-पर से भी पहले उड़ान माँगते हैं
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लिक्खे थे सफ़र पाँव में किस तरह ठहरते
और ये भी कि तुम ने तो पुकारा ही नहीं था
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सुना है सच्ची हो नीयत तो राह खुलती है
चलो सफ़र न करें कम से कम इरादा करें
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