मीर अहमद नवेद
ग़ज़ल 11
अशआर 13
चराग़-हा-ए-तकल्लुफ़ बुझा दिए गए हैं
उठाओ जाम कि पर्दे उठा दिए गए हैं
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जो मिल गए तो तवंगर न मिल सके तो गदा
हम अपनी ज़ात के अंदर छुपा दिए गए हैं
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पेश-ए-ज़मीं रहूँ कि पस-ए-आसमाँ रहूँ
रहता हूँ अपने साथ मैं चाहे जहाँ रहूँ
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मैं कहीं आऊँ मैं कहीं जाऊँ
वक़्त जैसे रुका सा रहता है
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मुमकिन नहीं है शायद दोनों का साथ रहना
तेरी ख़बर जब आई अपनी ख़बर गई है
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