महबूब राही के शेर
फिर मसाइल के यज़ीद आए हैं बै'अत लेने
गर्म फिर मा'रका-ए-कर्ब-ओ-बला है मुझ में
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अल्ताफ़-ओ-करम ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब कुछ भी नहीं है
था पहले बहुत कुछ मगर अब कुछ भी नहीं है
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