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मिद्हत-उल-अख़्तर

1945 | औरंगाबाद, भारत

मिद्हत-उल-अख़्तर

ग़ज़ल 28

अशआर 12

लाई है कहाँ मुझ को तबीअत की दो-रंगी

दुनिया का तलबगार भी दुनिया से ख़फ़ा भी

जिस्म उस की गोद में हो रूह तेरे रू-ब-रू

फ़ाहिशा के गर्म बिस्तर पर रिया-कारी करूँ

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जाने वाले मुझे कुछ अपनी निशानी दे जा

रूह प्यासी रहे आँख में पानी दे जा

ख़्वाबों की तिजारत में यही एक कमी है

चलती है दुकाँ ख़ूब कमाई नहीं देती

तुम मिल गए तो कोई गिला अब नहीं रहा

मैं अपनी ज़िंदगी से ख़फ़ा अब नहीं रहा

पुस्तकें 5

 

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