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मिर्ज़ा ग़ालिब के क़िस्से
बोतल की दुआ
एक शाम मिर्ज़ा को शराब न मिली तो नमाज़ पढ़ने चले गये। इतने में उनका एक शागिर्द आया और उसे मालूम हुआ कि मीरज़ा को आज शराब नहीं मिली, चुनांचे उसने शराब का इंतिज़ाम किया और मस्जिद के सामने पहुंचा। वहाँ से मीरज़ा को बोतल दिखाई। बोतल देखते ही मीरज़ा वुज़ू करने
आधा मुस्लमान!
ग़दर के हंगामे के बाद जब पकड़-धकड़ शुरू हुई तो मीरज़ा ग़ालिब को भी बुलाया गया। ये कर्नल ब्राउन के रूबरू पेश हुए तो वही कुलाह पयाख़ जो ये पहना करते थे, हस्ब-ए-मा’मूल उनके सर पर थी। जिसकी वजह से कुछ अ’जीब-ओ-ग़रीब वज़ा क़ता (हुलिया) मालूम होती थी। उन्हें देखकर
दिल्ली में गधे बहुत हैं
एक-बार दिल्ली में रात गये किसी मुशायरे या दा’वत से मिर्ज़ा साहिब मौलाना फ़ैज़ उल-हसन फ़ैज़ सहारनपुरी के हमराह वापस आरहे थे। रास्ते में एक तंग-ओ-तारीक गली से गुज़र रहे थे कि आगे वहीं एक गधा खड़ा था। मौलाना ने ये देखकर कहा, “मीरज़ा साहिब, दिल्ली में गधे बहुत
उल्लू को गाली देनी भी नहीं आती
मीरज़ा साहिब खाना खा रहे थे। चिठ्ठी रसान (डाकिया) ने एक लिफ़ाफ़ा लाकर दिया। लिफ़ाफ़े की बे रब्ती और कातिब के नाम की अजनबीयत से उनको यक़ीन हो गया कि ये किसी मुख़ालिफ़ का वैसा ही गुमनाम ख़त है जैसे पहले आचुके हैं। लिफ़ाफ़ा पास बैठे शागिर्द को दिया कि इसको
आम: जिसे गधा भी नहीं खाता
एक रोज़ मीरज़ा के दोस्त हकीम रज़ी उद्दीन ख़ान साहब जिनको आम पसंद नहीं थे, मीरज़ा साहिब के मकान पर आये। दोनों दोस्त बरामदे में बैठ कर बातें करने लगे। इत्तफ़ाक़ से एक कुम्हार अपने गधे लिए सामने से गुज़रा। ज़मीन पर आम के छिलके पड़े थे। गधे ने उनको सूँघा और छोड़कर
अपने जूतों की हिफ़ाज़त
एक दिन जबकि आफ़ताब ग़ुरूब हो रहा था, सय्यद सरदार मिर्ज़ा, मीरज़ा ग़ालिब से मिलने को आये। जब थोड़ी देर के बाद वो जाने लगे तो मीरज़ा साहिब ख़ुद शम्मा लेकर फ़र्श के किनारे तक आये ताकि सय्यद साहिब अपना जूता रोशनी में देखकर पहन लें। उन्होंने कहा, “क़िबला! आपने
आँखें फूटें जो एक हर्फ़ भी पढ़ा हो
मारहरे की ख़ानक़ाह के बुज़ुर्ग सय्यद साहिब आ’लम ने ग़ालिब को एक ख़त लिखा। उनकी लिखावट बहुत टूटी फूटी थी। उसे पढ़ना जू-ए-शीर लाने के मुतरादिफ़ (पर्याय) था। ग़ालिब ने उन्हें जवाब दिया, “पीर-ओ-मुर्शिद, ख़त मिला चूमा-चाटा, आँखों से लगाया, आँखें फूटें जो एक
तुमने मेरे पैर दाबे मैंने पैसे
एक रोज़ मीरज़ा साहिब के शागिर्द मीर मेह्दी मजरूह उनके मकान पर आये। देखा कि मीरज़ा साहिब पलंग पर पड़े कराह रहे हैं। ये उनके पांव दाबने लगे। मीरज़ा साहिब ने कहा, “भई तू सय्यद ज़ादा है मुझे क्यों गुनहगार करता है?” मीर मेह्दी मजरूह न माने और कहा कि “आपको ऐसा
मिर्ज़ा तुमने कितने रोज़े रखे?
एक मर्तबा जब माह रमज़ान गुज़र चुका तो बहादुर शाह बादशाह ने मीरज़ा साहिब से पूछा कि, “मीर्ज़ा तुमने कितने रोज़े रखे?” मीरज़ा साहिब ने जवाब दिया, “पीर-ओ-मुर्शिद एक नहीं रखा।” एक मर्तबा माह रमज़ान में मीरज़ा ग़ालिब नवाब हुसैन मिर्ज़ा के हाँ गये और पान मंगाकर
मैं बाग़ी कैसे?
हंगामा-ए-ग़दर के बाद जब मिर्ज़ा ग़ालिब की पेंशन बंद थी। एक दिन मोती लाल, मीर-ए-मुंशी लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर पंजाब, मीरज़ा साहिब के मकान पर आये। दौरान गुफ़्तगु में पेंशन का भी ज़िक्र आया। मीरज़ा साहिब ने कहा, “तमाम उम्र अगर एक दिन शराब न पी हो तो काफ़िर
क्या आपसे बढ़कर भी कोई बला है
मीरज़ा साहिब एक-बार अपना मकान बदलना चाहते थे। चुनांचे इस सिलसिले में कई मकान देखे, जिनमें एक का दीवानख़ाना मिर्ज़ा साहिब को पसंद आया, मगर महल सरा देखने का मौक़ा न मिल सका। घर आकर बेगम साहिबा को महल सरा देखने के लिए भेजा। जब वो देखकर वापस आयीं तो बताया कि,
पहले गोरे की क़ैद में था अब काले की
जब मिर्ज़ा क़ैद से छूट कर आये तो मियाँ काले साहिब के मकान में आकर रहे थे। एक रोज़ मियां साहिब के पास बैठे थे कि किसी ने आकर क़ैद से छूटने की मुबारकबाद दी। मिर्ज़ा ने कहा, “कौन भड़वा क़ैद से छूटा है! पहले गोरे की क़ैद में था, अब काले की क़ैद में हूँ।”
देखो साहब! ये बातें हमको पसंद नहीं
एक दफ़ा मीरज़ा साहब ने एक दोस्त को दिसंबर 1858 की आख़िरी तारीख़ों में ख़त इरसाल किया। दोस्त ने जनवरी 1859 की पहली या दूसरी तारीख़ को जवाब लिखा, मीरज़ा साहिब उनको लिखते हैं, “देखो साहिब! ये बातें हमको पसंद नहीं। 1858 के ख़त का जवाब 1859 में भेजते हो और
ख़ुदा के सपुर्द!
ग़दर के बाद मीरज़ा की मआ’शी हालत (आर्थिक स्थिति) दो बरस तक दिगर-गूँ रही। आख़िर नवाब यूसुफ़ अली ख़ान रईस रामपपुर ने सौ रुपया माहाना ताहयात वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया। नवाब कल्बे अली ख़ान ने भी उस वज़ीफ़े को जारी रखा। नवाब यूसुफ़ अली ख़ान की वफ़ात के चंद रोज़ बाद नवाब
न फंदा ही टूटता है न दम ही निकलता है
उमराव सिंह जौहर, गोपाल तफ्ता के अ’ज़ीज़ दोस्त थे। उनकी दूसरी बीवी के इंतिक़ाल का हाल तफ्ता ने मिर्ज़ा साहिब को भी लिखा, तो उन्होंने जवाबन लिखा, “उमराव सिंह के हाल पर उसके वास्ते मुझको रहम और अपने वास्ते रश्क आता है। अल्लाह अल्लाह! एक वो हैं कि दोबार
ख़ुसर का शज्रा और मिर्ज़ा की शरारत
मीरज़ा साहिब के ख़ुस्र मिर्ज़ा इलाही बख़्श ख़ान पीरी मुरीदी भी करते थे और अपने सिलसिले के शज्रे की एक-एक कापी अपने मुरीदों को दिया करते थे। एक दफ़ा उन्होंने मीरज़ा साहिब से शज्रा नक़ल करने के लिए कहा। मीरज़ा साहिब ने नक़ल तो कर दी मगर इस तरह कि एक नाम लिख