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मिर्ज़ा हादी रुस्वा

1858 - 1931 | लखनऊ, भारत

मिर्ज़ा हादी रुस्वा

ग़ज़ल 3

 

अशआर 31

उन्हीं का नाम ले ले कर कोई फ़ुर्क़त में मरता है

कभी वो भी तो सुन लेंगे जो बदनामी से डरते हैं

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चंद बातें वो जो हम रिंदों में थीं ज़र्बुल-मसल

अब सुना मिर्ज़ा कि दर्द-ए-अहल-ए-इरफ़ाँ हो गईं

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ज़र्बुल-मसल है होते हैं माशूक़ बे-वफ़ा

ये कुछ तुम्हारा ज़िक्र नहीं है ख़फ़ा हो

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बर्बाद कर के मुझ को हों मुन्फ़इल हुज़ूर

मैं आप मो'तरिफ़ हूँ कि मेरा क़ुसूर था

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शिकवों में भी अंदाज़ हो हुस्न-ए-तलब का

हाँ दिल-ए-बेताब रहे पास अदब का

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