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मिर्ज़ा मायल देहलवी

1866 - 1894 | दिल्ली, भारत

उत्तर-क्लासिकी शायर, दाग़ देहलवी के रंग में शायरी के लिए मशहूर

उत्तर-क्लासिकी शायर, दाग़ देहलवी के रंग में शायरी के लिए मशहूर

मिर्ज़ा मायल देहलवी

ग़ज़ल 14

अशआर 13

अज़मत-ए-कअबा मुसल्लम है मगर बुत-कदा में

एक आराम ये कैसा है कि कुछ दूर नहीं

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ईमान जाए या रहे जो हो बला से हो

अब तो नज़र में वो बुत-ए-काफ़िर समा गया

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तल्ख़ी तुम्हारे वाज़ में है वाइज़ो मगर

देखो तो किस मज़े की है तल्ख़ी शराब में

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काबा ही तजल्ली-गाह ठहराया बुत-ख़ाना

लड़ाना ख़ूब आता है तुम्हें शैख़ बरहमन को

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मिलें किसी से तो बद-नाम हों ज़माने में

अभी गए हैं वो मुझ को सुना के पर्दे में

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