aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1866 - 1894 | दिल्ली, भारत
उत्तर-क्लासिकी शायर, दाग़ देहलवी के रंग में शायरी के लिए मशहूर
अज़मत-ए-कअबा मुसल्लम है मगर बुत-कदा में
एक आराम ये कैसा है कि कुछ दूर नहीं
ईमान जाए या रहे जो हो बला से हो
अब तो नज़र में वो बुत-ए-काफ़िर समा गया
तल्ख़ी तुम्हारे वाज़ में है वाइज़ो मगर
देखो तो किस मज़े की है तल्ख़ी शराब में
न काबा ही तजल्ली-गाह ठहराया न बुत-ख़ाना
लड़ाना ख़ूब आता है तुम्हें शैख़ ओ बरहमन को
मिलें किसी से तो बद-नाम हों ज़माने में
अभी गए हैं वो मुझ को सुना के पर्दे में
Kalam-e-Mayel
1964
कुल्लियात-ए-माएल
भाग-001
1976
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