मिस्कीन शाह
ग़ज़ल 7
अशआर 5
ख़फ़ा भी हो के जो देखे तो सर निसार करूँ
अगर न देखे तो फिर भी है इक सलाम से काम
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ब'अद मुद्दत गर्दिश-ए-तस्बीह से 'मिस्कीं' हमें
दाना-ए-तस्बीह में ज़ुन्नार आता है नज़र
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राह से दैर-ओ-हरम की है जो कू-ए-यार में
है वही दीं-दार गर कुफ़्फ़ार आता है नज़र
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