मोहम्मद बे-नज़ीर शाह के शेर
हुए फूल ख़ुश्क चमन जला कहीं नाम को न तिरी रही
यही अपने ज़ख़्म हरे रहे यही अपनी आँख भरी रही
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मुसीबत में आँखें खुलीं अब तो देखा
छुपाते हैं मुँह मेहरबाँ कैसे कैसे
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हमारा इम्तिहाँ करते हो लेकिन
तुम्हारा भी इसी में इम्तिहाँ है
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