मुमताज़ गुर्मानी के शेर
मेले में गर नज़र न आता रूप किसी मतवाली का
फीका फीका रह जाता त्यौहार भी इस दीवाली का
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere