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मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

1747 - 1824 | लखनऊ, भारत

18वीं सदी के बड़े शायरों में शामिल, मीर तक़ी 'मीर' के समकालीन।

18वीं सदी के बड़े शायरों में शामिल, मीर तक़ी 'मीर' के समकालीन।

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

ग़ज़ल 273

अशआर 596

अब शीशा-ए-साअत की तरह ख़ुश्की के बाइस

गिर्या की जगह रेत निकलती है गुलू से

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कुछ इस क़दर नहीं सफ़र-ए-हस्ती-ओ-अदम

गर पाँव उठाइए तो ये अर्सा है दो क़दम

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गर ये आँसू हैं तो लाख आवेंगे दरिया जोश में

गर ये आँखें हैं तो दिखलावेंगी तूफ़ाँ सैकड़ों

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तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है

हबाब के जो क़रीं दूसरा हबाब आया

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सौदा है ये किस ज़ुल्फ़ का इस को जो हमेशा

दीवाना तिरा फेंके है ज़ंजीर हवा पर

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नअत 1

 

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चित्र शायरी 7

 

वीडियो 3

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आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो

ताहिरा सैयद

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ख़्वाब था या ख़याल था क्या था

जगजीत सिंह

ऑडियो 5

अव्वल तो तिरे कूचे में आना नहीं मिलता

आज पलकों को जाते हैं आँसू

जब कि बे-पर्दा तू हुआ होगा

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