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मुज़फ़्फ़र अली असीर

1800 - 1882 | लखनऊ, भारत

मुज़फ़्फ़र अली असीर

ग़ज़ल 11

अशआर 5

काबे चलता हूँ पर इतना तो बता

मय-कदा कोई है ज़ाहिद राह में

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नज़्ज़ारा-ए-क़ातिल ने किया महव ये हम को

गर्दन पे चमकती हुई शमशीर सूझी

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मग़फ़िरत की नज़र आती है बस इतनी सूरत

हम गुनाहों से पशेमान रहा करते हैं

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रौनक़ गुलशन जो वो रिंद-ए-शराबी हो गया

फूल साग़र बन गया ग़ुंचा गुलाबी हो गया

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वाह क्या इस गुल-बदन का शोख़ है रंग-ए-बदन

जामा-ए-आबी अगर पहना गुलाबी हो गया

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