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मुज़फ़्फ़र रज़्मी

1936 - 2012 | मुजफ्फरनगर, भारत

अपने शेर 'ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने' के लिए विख्यात।

अपने शेर 'ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने' के लिए विख्यात।

मुज़फ़्फ़र रज़्मी

ग़ज़ल 11

अशआर 9

ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने

लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई

ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा

वर्ना ख़ुद्दार मुसाफ़िर हूँ गुज़र जाऊँगा

क़रीब आओ तो शायद समझ में जाए

कि फ़ासले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं

मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँही

मैं तिरी ज़ुल्फ़ नहीं हूँ जो सँवर जाऊँगा

मेरे दामन में अगर कुछ रहेगा बाक़ी

अगली नस्लों को दुआ दे के चला जाऊँगा

पुस्तकें 2

 

वीडियो 3

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शायर अपना कलाम पढ़ते हुए
At a Mushaira

मुज़फ़्फ़र रज़्मी

Mushaira Urdu Academy Chenni

मुज़फ़्फ़र रज़्मी

Reciting own poetry

मुज़फ़्फ़र रज़्मी

ऑडियो 11

अभी ख़ामोश हैं शोलों का अंदाज़ा नहीं होता

इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई

कोई सौग़ात-ए-वफ़ा दे के चला जाऊँगा

Recitation

aah ko chahiye ek umr asar hote tak SHAMSUR RAHMAN FARUQI

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