मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल 40
नज़्म 3
अशआर 17
वतन की रेत ज़रा एड़ियाँ रगड़ने दे
मुझे यक़ीं है कि पानी यहीं से निकलेगा
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ज़िंदगी तुझ से हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना भी नहीं
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कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है
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हर शख़्स पर किया न करो इतना ए'तिमाद
हर साया-दार शय को शजर मत कहा करो
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जभी तो उम्र से अपनी ज़ियादा लगता हूँ
बड़ा है मुझ से कई साल तजरबा मेरा
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नअत 2
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