मुज़फ़्फ़र वारसी के शेर
ज़िंदगी तुझ से हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना भी नहीं
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कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है
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पहले रग रग से मिरी ख़ून निचोड़ा उस ने
अब ये कहता है कि रंगत ही मिरी पीली है
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टैग : जफ़ा
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जभी तो उम्र से अपनी ज़ियादा लगता हूँ
बड़ा है मुझ से कई साल तजरबा मेरा
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मैं अपने घर में हूँ घर से गए हुओं की तरह
मिरे ही सामने होता है तज़्किरा मेरा
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टैग : घर
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लिया जो उस की निगाहों ने जाएज़ा मेरा
तो टूट टूट गया ख़ुद से राब्ता मेरा
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टैग : निगाह
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तू चले साथ तो आहट भी न आए अपनी
दरमियाँ हम भी न हों यूँ तुझे तन्हा चाहें
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ख़ुद मिरी आँखों से ओझल मेरी हस्ती हो गई
आईना तो साफ़ है तस्वीर धुँदली हो गई
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मुझे ख़ुद अपनी तलब का नहीं है अंदाज़ा
ये काएनात भी थोड़ी है मेरे कासे में
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डुबोने वालों को शर्मिंदा कर चुका हूँगा
मैं डूब कर ही सही पार उतर चुका हूँगा
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ज़ख़्म-ए-तन्हाई में ख़ुशबू-ए-हिना किस की थी
साया दीवार पे मेरा था सदा किस की थी
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साँस लेता हूँ कि पत-झड़ सी लगी है मुझ में
वक़्त से टूट रहे हैं मिरे बँधन जैसे
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माना कि मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़ कर नहीं हूँ मैं
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं
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