नईम रज़ा भट्टी
ग़ज़ल 9
नज़्म 1
अशआर 5
बात ये है कि बात कोई नहीं
मैं अकेला हूँ साथ कोई नहीं
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इस को मैं इंक़लाब कहता हूँ
ये जो इंकार की फ़ज़ा से उठा
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पस-ए-पर्दा बहुत बे-पर्दगी है
बहुत बेज़ार है किरदार अपना
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ये तमाशा-ए-इल्म-ओ-हुनर दोस्तो
कुछ नहीं है फ़क़त काग़ज़ी वहम है
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अपनी बे-ए'तिदालियों के सबब
मैं अगर बढ़ गया हुआ कम भी
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