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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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नईम जर्रार अहमद

1965 | लाहौर, पाकिस्तान

नईम जर्रार अहमद

ग़ज़ल 20

नज़्म 12

अशआर 9

मैं वो महरूम-ए-इनायत हूँ कि जिस ने तुझ से

मिलना चाहा तो बिछड़ने की वबा फूट पड़ी

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जितनी आँखें थीं सारी मेरी थीं

जितने मंज़र थे सब तुम्हारे थे

ये जानता है पलट कर उसे नहीं आना

वो अपनी ज़ीस्त की खिंचती हुई कमान में है

मैं ख़ुद को सामने तेरे बिठा कर

ख़ुद अपने से गिला करता रहा हूँ

मान टूटे तो फिर नहीं जुड़ता

बद-गुमानी कभी के गई

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