नसीम ज़ाहिद
ग़ज़ल 17
अशआर 20
आई वो रफ़्ता रफ़्ता तक़द्दुस की राह तक
फिर यूँ हुआ कि निय्यत-ए-नासेह बिगड़ गई
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मैं सब्र कर रहा हूँ तो ज़ालिम है ता'ना-ज़न
उस को ख़बर नहीं कि ख़ुदा मेरे साथ है
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उसे दौलत कमाने की हवस थी
नज़र से अब नज़ारा हो गई है
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किरदार रहनुमा का मुझे लग रहा है यूँ
तलवार जैसे हो किसी पागल के हाथ में
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मुद्दतों पहले उड़ा है वो परिंदा लेकिन
आज तक मेरी नज़र से कभी ओझल न हुआ
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