नज़ीर आज़ाद
ग़ज़ल 18
अशआर 7
तुझ में गर बारिश समुंदर के बराबर है तो क्या
मेरे अंदर भी है सहरा के बराबर तिश्नगी
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आँख भर इश्क़ और बदन भर चाह
शुक्र लब भर गिला ज़बाँ भर था
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ज़र्रा ज़र्रा कर्बला मंज़र-ब-मंज़र तिश्नगी
अपने हिस्से में तो आई है सरासर तिश्नगी
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आबाद है इस दिल का जहाँ जिस के क़दम से
वो मुझ को पुकारे है किसी और जहाँ से
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क्या मिला जुज़ सुकूत-ए-बे-पायाँ
शोर सीने में कारवाँ भर था
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