नाज़िम बरेलवी
ग़ज़ल 3
अशआर 3
शाएरी तो वारदात-ए-क़ल्ब की रूदाद है
क़ाफ़िया-पैमाई को मैं शाएरी कैसे कहूँ
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अपने अंदाज़-ए-तकल्लुम को बदल दे वर्ना
मेरा लहजा भी तिरे साथ बदल सकता है
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गए मौसम का इक पीला सा पत्ता शाख़ पर रह कर
न जाने क्या बताना चाहता है इन बहारों को
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