उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल 49
नज़्म 16
शेर 48
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए
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ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ
काश तुझ को भी इक झलक देखूँ
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काश देखो कभी टूटे हुए आईनों को
दिल शिकस्ता हो तो फिर अपना पराया क्या है
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हवा के दोश पे रक्खे हुए चराग़ हैं हम
जो बुझ गए तो हवा से शिकायतें कैसी
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पुस्तकें 5
चित्र शायरी 25
लाखों शक्लों के मेले में तन्हा रहना मेरा काम भेस बदल कर देखते रहना तेज़ हवाओं का कोहराम एक तरफ़ आवाज़ का सूरज एक तरफ़ इक गूँगी शाम एक तरफ़ जिस्मों की ख़ुशबू एक तरफ़ उस का अंजाम बन गया क़ातिल मेरे लिए तो अपनी ही नज़रों का दाम सब से बड़ा है नाम ख़ुदा का उस के बाद है मेरा नाम
वीडियो 39
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