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पल्लव मिश्रा

1998 | दिल्ली, भारत

उर्दू ग़ज़ल की नई नस्ल में एक अहम नाम, शायरी में ज़बान की लताफ़त और एहसासात की गहराई का हसीन इम्तिज़ाज

उर्दू ग़ज़ल की नई नस्ल में एक अहम नाम, शायरी में ज़बान की लताफ़त और एहसासात की गहराई का हसीन इम्तिज़ाज

पल्लव मिश्रा

ग़ज़ल 11

अशआर 13

मैं एक ख़ाना-ब-दोश हूँ जिस का घर है दुनिया

सो अपने काँधे पे ले के ये घर भटक रहा हूँ

मैं तुझ से मिलने समय से पहले पहुँच गया था

सो तेरे घर के क़रीब कर भटक रहा हूँ

ये तय हुआ था कि ख़ूब रोएँगे जब मिलेंगे

अब उस के शाने पे सर है तो हँसते जा रहे हैं

ये जिस्म तंग है सीने में भी लहू कम है

दिल अब वो फूल है जिस में कि रंग-ओ-बू कम है

मैं अपनी मौत से ख़ल्वत में मिलना चाहता हूँ

सो मेरी नाव में बस मैं हूँ नाख़ुदा नहीं है

चित्र शायरी 1

 

वीडियो 6

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पल्लव मिश्रा

पल्लव मिश्रा

वीडियो का सेक्शन
शायर अपना कलाम पढ़ते हुए

पल्लव मिश्रा

पल्लव मिश्रा

कुछ ऐसे दो-जहाँ से राब्ता रक्खा गया है

पल्लव मिश्रा

तुम्हारी दुनिया के बाहर अंदर भटक रहा हूँ

पल्लव मिश्रा

लहू में घुल घुल के बह रहे थे रगों के अंदर

पल्लव मिश्रा

वो बार-ए-फ़र्ज़-ए-तकल्लुफ मुझी को ढोना पड़ा

पल्लव मिश्रा

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