पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
ग़ज़ल 44
अशआर 15
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere